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Friday, August 17, 2018

---हरि अनंत हरि कथा अनंता, कहहिं सुनहिं बहु विधि सब संता---

सामाजिक स्थापना की दिशा में किया गया प्रत्येक कार्य ईश्वर का कार्य सदृश्य है। हम आखिर ईश्वर की चर्चा क्यों करते हैं, उनको जीवन में धारण करने का प्रयास क्यों करते हैं जबकि उनको हमने ना कभी देखा है, ना ही उन के स्वरूप का ज्ञान है। किंतु अनेक प्रतीकों के माध्यम से, चाहे वह पत्थर हो या प्रकृति में उपस्थित अन्य कोई तत्व, पशु या मनुष्य-  लगभग हर प्रकार से हमने ईश्वर की परिकल्पना की है। इन परिकल्पनाओं के आधार पर अनेक कथाएं रची हैं और आज हम स्वयं की बनाई गई परिभाषाओं पर ही अनेक प्रश्न चिन्ह लगाते हुए उन्हें अस्तित्व के प्रश्नों से निरंतर जूझ रहे हैं तथा स्वयं एवं ईश्वर के अस्तित्व पर ही प्रश्नचिन्ह लगा देते हैं।

अनेक शास्त्रों ने समस्त जगत को ही ईश्वर का अंश माना है किंतु प्रश्न यह उठता है कि इन परिकल्पनाओं से हमारा जीवन कैसे जुड़ा हुआ है? भगवान श्री राम के चरित्र की कथा सर्वप्रथम भगवान शिव ने कही तत्पश्चात काक भुसुंडि जी उसके बाद बाल्मीकि रामायण के माध्यम से भारतीय समाज का अंग बन गया। विभिन्न काल खंडों में इसी चरित्र को विभिन्न विद्वान, साहित्यकार, लेखक, कवि इत्यादि ने अपने कौशल एवं साहित्यिक क्षमता के माध्यम से विभिन्न भाषाओं में अपने अपने भावनाओं के माध्यम से रचा है। गोस्वामी तुलसीदास जी ने अवधी में श्री रामचरितमानस की रचना की, ऋषि कम्ब ने तमिल में कंब रामायण की रचना की तथा ऐसे ही अनेक साहित्यकारों ने अपनी अपनी भाषाओं में श्री राम चरित्र की अभिव्यक्ति की है। प्रश्न यह उठता है कि आखिर ऐसे आदर्श चरित्र को जन-जन तक विभिन्न माध्यमों से पुनः पुनः स्थापित करने की क्या आवश्यकता है।

सामाजिक संरचना के दो प्रमुख आधार हैं - मर्यादा एवं स्वतंत्रता। किंतु मर्यादा एवं स्वतंत्रता केवल शब्द के आधार पर समाज का दिशा निर्देशन करने में प्रभावी नहीं होते। यह सामाजिक संरचना के दो प्रमुख सिद्धांत है। किंतु आम जनमानस को सिद्धांत के सूत्र सीधे-सीधे बताना अत्यंत दुष्कर होता है अतः परिभाषाएं गढ़ी जाती हैं तथा परिभाषाओं को सफलतापूर्वक जनमानस के हृदय में उतारने हेतु सहज कहानियों का आधार लेना पड़ता है या ऐसे कह सकते हैं कि कहानियां गढ़नी पड़ती हैं जो आम जनमानस से सीधे संवाद करती हैं तथा सिद्धांत को उनके मानस पटल पर अंकित कर देती हैं। सामाजिक संरचना एवं आदर्शों के आधारभूत शास्त्र ऐसे ही रचे जाते हैं। उदाहरण के रूप में आलस नहीं करना चाहिए अथवा आलसी सदैव पराजित होता है यह सिद्धांत है किंतु कछुए एवं खरगोश की कहानी अत्यंत सहजता से इस सिद्धांत को बच्चों के मन में स्थापित कर देती है।

समय की गति के साथ सामाजिक परिवर्तन होना स्वाभाविक है। अतः सिद्धांत वही होने के बावजूद उनकी व्याख्या वर्तमान समाज के दृष्टिकोण एवं आवश्यकता के अनुसार करना आवश्यक हो जाता है। यदि ऐसा ना किया जाए तो समाज कहानी के पात्रों में ही उलझ कर रह जाता है तथा सही गलत की अपनी अपनी बुद्धि के अनुसार व्याख्या करता है और भटकाव से निकल नहीं पाता।

वर्तमान समय में भी अनेक विद्वान सामाजिक सिद्धांतों की व्याख्या अपनी-अपनी क्षमता के अनुसार करते हैं। इनमें जो भी जनमानस से सीधे सीधे जुड़कर समाज का मार्गदर्शन करती हैं वे रचनाएं कालातीत हो जाती हैं तथा समाज के पुनर्निर्माण में मील का पत्थर साबित होती है। कलयुग में ईश्वर के चरित्र का गान अथवा नाम भर लेना भी समाज को भटकाव से परे उचित मार्गदर्शन देता हुआ उसे ऊंचाई पर ले जाता है। मन के कलुष भेद इत्यादि सभी इससे नष्ट हो जाते हैं।

अतः ईश्वर के चरित्र पर जिस प्रकार से भी चर्चा हो, जिस प्रकार से भी नाम लिया जाए, जिस प्रकार से भी उनके जीवन के आदर्श को समझा जाए, जिस प्रकार भी अपने जीवन में उतारा जाए, जिस प्रकार से भी समाज नैतिकता की ओर जाए सभी सत्य हैं, सभी पूज्य हैं, अभी जीवन में धारण करने योग्य हैं।

-  दीपक श्रीवास्तव

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