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Saturday, August 4, 2018

--- पेट की आग से परे ---

हम सब एक ही परम सत्ता के अंश हैं।  एक ही तरह से हमने जन्म लिया है, अलग-अलग परिवेश में पलने के बावजूद हम सबके बचपन में एक जैसी ही मासूमियत रही है, एक जैसी किलकारियां, एक जैसा हंसना, एक जैसा रोना, एक जैसे शारीरिक परिवर्तन रहे हैं।   बाल्यावस्था से किशोरावस्था, किशोरावस्था से युवावस्था, युवावस्था से अधेड़ावस्था, अधेड़ावस्था से वृद्धावस्था तत्पश्चात जाने की तैयारी लगभग सभी के साथ एक सा ही है। फिर मनुष्यों के बीच इतने विरोधाभास क्यों, इतनी भिन्नताएं, एक दूसरे के प्रति ईर्ष्या, अमानवीयता की हदों को पार करने वाली गलाकाट प्रतियोगिताएं केवल उस सुख को प्राप्त करने के लिए जो सुख कभी हमारा रहा ही नहीं और न कभी हो सकता है।
जन्म लेना और जीवन जीना एक सहज प्रक्रिया है किंतु अनेक अवसरों पर यह सहजता प्रभावित होती है।  कभी सामाजिक दिखावे के लिए, कभी भौतिक वस्तुओं की प्राप्ति के लिए, कभी इंद्रियों के सुख के लिए, कभी भीड़ से अलग दिखने के लिए, कभी पारिवारिक मोह के वशीभूत होकर तो कभी दूसरों को नीचा साबित करने के लिए व्यक्ति सहज से  असहज होने का प्रयास करता है। इस असहजता का छोटा सा स्पर्श भी व्यक्ति के अंदर कुंठा, असंतोष, ईर्ष्या जैसे तमाम विकारों को जन्म दे देता है।
 किंतु मानवीय स्वभाव अत्यंत सहज है। यदि हम किसी से प्रेम करते हैं तथा उससे प्रेम मिलता है तो हमें आनंद की अनुभूति होती है। शिशुओं की मुस्कान देखते ही चित्त प्रसन्न हो जाता है। सुंदर गीत संगीत सुनने  पर हृदय को सुकून मिलता है। यदि यही सहजता जीवन भर बनी रहे तो व्यक्ति प्रत्येक प्रकार की व्याधियों से दूर रहकर एक खुशहाल जीवन बिता सकता है। इसके विपरीत यदि हम किसी पर क्रोध करें या इर्ष्या करें तो तमाम नकारात्मक विचारों भावनाओं एवं ऊर्जाओं के चलते हमें भी कष्ट होता है तथा उसे भी कष्ट होता है। इससे यह तो स्पष्ट है कि मनुष्य का मूल स्वभाव ईर्ष्या, जलन के परे प्रेम एवं आनंद की प्राप्ति का है।
 पेट की आग सब कुछ नहीं होती, निरंतर एक अग्नि व्यक्ति के जीवन में जलती रहती है - आनंद की चाह, प्रेम की चाह, प्रेम करने की इच्छा। मन कहता है कि शहर से दूर कहीं प्रकृति के किसी सुरम्य वातावरण में बैठकर अपने हृदय का पोर-पोर खोल दें। न तो भौतिक सुख चाहिए, न घर, न पैसे -  कोई इच्छा नहीं जब प्रकृति की गोद में बैठे हो तो स्वतः एक आनंद की अनुभूति होती है यह है मनुष्य का सहज स्वभाव।  नीतिशास्त्र का प्रकांड विद्वान  लंकानरेश रावण जिसके महल में किसी भी प्रकार के भौतिक सुख का अभाव नहीं था वह भी यदि कुछ कामना करता है तो यही करता है कि हे शिव कब मैं इस भौतिक चमक दमक से दूर प्रकृति के किसी सुरम्य में कोने में बैठ कर आपके नाम को जपने का सुख ले पाऊंगा। इसका जिक्र रावण रचित शिव-तांडव-स्तोत्रम में भी है-


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कदा निलिंपनिर्झरी निकुंजकोटरे वसन्‌ विमुक्तदुर्मतिः सदा शिरःस्थमंजलिं वहन्‌।
विमुक्तलोललोचनो ललामभाललग्नकः शिवेति मंत्रमुच्चरन्‌ कदा सुखी भवाम्यहम्‌ ॥
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 आनंद की इस भूख को जीवन भर न मिटने दें।  पेट की आग के साथ-साथ इस आग को भी बनाकर रखें क्योंकि यही अग्नि हमें अपने जीवन के उद्देश्य से परिचित कराने का सामर्थ्य रखती है। अपने अस्तित्व के प्रश्नों से जूझने की बजाय उस अस्तित्व को महसूस करें क्योंकि जीवन में सब कुछ खोना पाना तभी तक है जब तक यह जीवन है-यही जीवन सबसे बड़ा सत्य है। दूसरों को सुख देने में जो आनंद है वह आनंद अन्यत्र कहीं नहीं।
 सच्चे आनंद की तलाश करने के लिए हमें बाहर कहीं भी जाने की आवश्यकता नहीं है। बस इसे अपने भीतर महसूस करें और हर पल इसे बाहर आने दें कभी प्रकृति की सुरम्य वादियों के साथ, कभी परिवार के साथ, कभी मित्रों के साथ। हर क्षण अपने मूल स्वभाव के साथ जिए यही वास्तविक आनंद है यही परम सुख है।

-  दीपक श्रीवास्तव

1 comment:

Saroj Kumar said...

साधुवाद आपकी सोच की गहराई और सत्य की परख को लिपिबद्ध करते इस लेख के लिए।