हम जब भी अपने घर के लिए, अपने परिवार के लिए अथवा अपने स्वास्थ्य के लिए कोई सेवा चाहते हैं तो उसकी गुणवत्ता से कोई समझौता नहीं चाहते। जो भी सर्वश्रेष्ठ सेवा दे सकता है उसका पता लगाने के पश्चात ही हम इसमें आगे बढ़ते हैं। व्यक्तियों से परिवार बनता है, परिवारों से समाज बनता है तथा मिट्टी संस्कृति एवं समाज से मिलकर राष्ट्र का निर्माण होता है। अतः राष्ट्र की बेहतर संकल्पना हेतु व्यक्तियों के स्तर तक प्रत्येक क्षेत्र में सशक्तिकरण की आवश्यकता है।
जब तक व्यक्तिगत स्तर पर प्रत्येक क्षेत्र में गुणवत्ता नहीं है तब तक कोई भी राष्ट्र वैश्विक स्तर पर अपनी पहचान नहीं बना सकता क्योंकि राष्ट्र की पहचान सर्वोच्च पदों पर आसीन व्यक्तियों से नहीं बल्कि वहां के आम जनमानस से होता है।
दुर्भाग्य की बात है कि जो व्यक्ति परिश्रमी है, क्षमताशील है, तथा स्वयं के विकास हेतु निरंतर प्रयास एवं संघर्षों का सामना करते हैं, अक्सर वे अपने अधिकारों के प्रति सजग नहीं होते। उनकी आम धारणा ऐसी होती है कि यदि योग्यता है तो उपयुक्त स्थान पा ही लेंगे। इसके विपरीत जो व्यक्ति परिश्रम नहीं करना चाहते परंतु अपनी क्षमता से अधिक पाने की इच्छा रखते हैं वे अक्सर इच्छित स्थान प्राप्त करने हेतु अनेक अनैतिक संसाधनों का सहारा लेने का प्रयास करते हैं और अयोग्य होते हुए भी योग्य व्यक्तियों के समकक्ष खड़े होने का प्रयास करते हैं। इतिहास साक्षी है यदि समाज के किसी भी एक वर्ग में एकता है तो समाज का भले ही हित हो या अहित हो राजनीतिक कारणों से उसे सरकारी सहयोग प्राप्त होता है तथा वे समाज में मजबूत हो जाते हैं। उन्हें अपनी योग्यता पर भले ही संदेह हो किंतु राजनैतिक सहयोग का चश्मा चढ़े होने के कारण राष्ट्र का हित उन्हें दिखाई नहीं देता। इसमें भी सबसे बड़े आश्चर्य की बात यह है कि जब अपने परिवार के हित की बात आती है तो वह उसी व्यक्ति से सेवा लेना चाहते हैं जो योग्यता के आधार पर अपने यथोचित स्थान पर हो।
राष्ट्र के हित इसी में है कि उपेक्षित वर्ग को भी आगे आने के पर्याप्त अवसर दिए जाएं जिसके अनेक प्रयास हमें प्रत्यक्ष दिखाई देते हैं परंतु दुर्भाग्य की बात यह है इन वर्गों में योग्यता को ऊपर उठाने हेतु एक भी प्रयास नहीं किया गया। जो कानून बनते हैं उनका उपयोग से अधिक दुरुपयोग होने लगता है।
पैरों के कमजोर होने पर बैसाखियों का सहारा लेना ठीक है किंतु जब कदमों में ताकत आ जाती है तब बैसाखियां पैरों की गति को कम करती हैं। कमोवेश आज भारतीय समाज की यही स्थिति है। आज अनेक उपेक्षित वर्ग सक्षम हो चुके हैं किंतु बैसाखियां छोड़ने को तैयार नहीं। ऐसा करके वह अपनी ही भावी पीढ़ी को योग्य बनने से रोक रहे हैं। सक्षम हो चुके वर्गों की आज नैतिक जिम्मेदारी भी है कि जिस राष्ट्र ने आगे बढ़ाने हेतु योग्यता के ऊपर उन्हें वरीयता दी है उसके निर्माण में अपना योगदान दें किंतु स्थिति आज इसके विपरीत है। उन्हें आगे बढ़ने का अवसर तो मिल गया किंतु उन्होंने इसका हृदय से सम्मान करना नहीं सीखा और स्वयं भी स्वार्थी होते हुए कुछ स्वार्थी एवं मौकापरस्त राजनीतिज्ञों के हाथों के मोहरे बन गए जिनकी बिसात पर आज देश में गंदा राजनीतिक खेल खेला जा रहा है।
निश्चित रूप से आज भले ही हम वैश्विक स्तर पर चंद कदम आगे बढ़े हो किंतु यदि योग्यता की उपेक्षा ऐसे ही होती रही तो राष्ट्र को पतन के गर्त में जाने से विश्व की कोई भी शक्ति रोक नहीं सकती।
- दीपक श्रीवास्तव
जब तक व्यक्तिगत स्तर पर प्रत्येक क्षेत्र में गुणवत्ता नहीं है तब तक कोई भी राष्ट्र वैश्विक स्तर पर अपनी पहचान नहीं बना सकता क्योंकि राष्ट्र की पहचान सर्वोच्च पदों पर आसीन व्यक्तियों से नहीं बल्कि वहां के आम जनमानस से होता है।
दुर्भाग्य की बात है कि जो व्यक्ति परिश्रमी है, क्षमताशील है, तथा स्वयं के विकास हेतु निरंतर प्रयास एवं संघर्षों का सामना करते हैं, अक्सर वे अपने अधिकारों के प्रति सजग नहीं होते। उनकी आम धारणा ऐसी होती है कि यदि योग्यता है तो उपयुक्त स्थान पा ही लेंगे। इसके विपरीत जो व्यक्ति परिश्रम नहीं करना चाहते परंतु अपनी क्षमता से अधिक पाने की इच्छा रखते हैं वे अक्सर इच्छित स्थान प्राप्त करने हेतु अनेक अनैतिक संसाधनों का सहारा लेने का प्रयास करते हैं और अयोग्य होते हुए भी योग्य व्यक्तियों के समकक्ष खड़े होने का प्रयास करते हैं। इतिहास साक्षी है यदि समाज के किसी भी एक वर्ग में एकता है तो समाज का भले ही हित हो या अहित हो राजनीतिक कारणों से उसे सरकारी सहयोग प्राप्त होता है तथा वे समाज में मजबूत हो जाते हैं। उन्हें अपनी योग्यता पर भले ही संदेह हो किंतु राजनैतिक सहयोग का चश्मा चढ़े होने के कारण राष्ट्र का हित उन्हें दिखाई नहीं देता। इसमें भी सबसे बड़े आश्चर्य की बात यह है कि जब अपने परिवार के हित की बात आती है तो वह उसी व्यक्ति से सेवा लेना चाहते हैं जो योग्यता के आधार पर अपने यथोचित स्थान पर हो।
राष्ट्र के हित इसी में है कि उपेक्षित वर्ग को भी आगे आने के पर्याप्त अवसर दिए जाएं जिसके अनेक प्रयास हमें प्रत्यक्ष दिखाई देते हैं परंतु दुर्भाग्य की बात यह है इन वर्गों में योग्यता को ऊपर उठाने हेतु एक भी प्रयास नहीं किया गया। जो कानून बनते हैं उनका उपयोग से अधिक दुरुपयोग होने लगता है।
पैरों के कमजोर होने पर बैसाखियों का सहारा लेना ठीक है किंतु जब कदमों में ताकत आ जाती है तब बैसाखियां पैरों की गति को कम करती हैं। कमोवेश आज भारतीय समाज की यही स्थिति है। आज अनेक उपेक्षित वर्ग सक्षम हो चुके हैं किंतु बैसाखियां छोड़ने को तैयार नहीं। ऐसा करके वह अपनी ही भावी पीढ़ी को योग्य बनने से रोक रहे हैं। सक्षम हो चुके वर्गों की आज नैतिक जिम्मेदारी भी है कि जिस राष्ट्र ने आगे बढ़ाने हेतु योग्यता के ऊपर उन्हें वरीयता दी है उसके निर्माण में अपना योगदान दें किंतु स्थिति आज इसके विपरीत है। उन्हें आगे बढ़ने का अवसर तो मिल गया किंतु उन्होंने इसका हृदय से सम्मान करना नहीं सीखा और स्वयं भी स्वार्थी होते हुए कुछ स्वार्थी एवं मौकापरस्त राजनीतिज्ञों के हाथों के मोहरे बन गए जिनकी बिसात पर आज देश में गंदा राजनीतिक खेल खेला जा रहा है।
निश्चित रूप से आज भले ही हम वैश्विक स्तर पर चंद कदम आगे बढ़े हो किंतु यदि योग्यता की उपेक्षा ऐसे ही होती रही तो राष्ट्र को पतन के गर्त में जाने से विश्व की कोई भी शक्ति रोक नहीं सकती।
- दीपक श्रीवास्तव
No comments:
Post a Comment