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Wednesday, September 12, 2018

--- आस्था की आड़ में खिलवाड़ ---

--- आस्था की आड़ में खिलवाड़ ---

आज हम अपने देश में अनेक असामाजिक तत्वों को भोले भाले लोगों को मूर्ख बनाकर अपना हित साधते हुए देख रहे हैं। धर्मगुरु एक धंधे की तरह विकसित होता जा रहा है चाहे वह हिंदू मुस्लिम अथवा ईसाई ही क्यों ना हो। कहीं कम तो कहीं अधिक किंतु इनके द्वारा आस्था की आड़ में भोली भाली जनता का शोषण हो रहा है।

मैं अधिकतर अपने लेखों में किसी व्यक्ति का नाम नहीं लेता क्योंकि श्री रामचरितमानस के बालकांड में पूज्य गोस्वामी जी ने लिखा है कि जब कोई रचनाकार सृजन की प्रक्रिया में होता है तो स्वयं माता सरस्वती अवतरित होकर रचना करती हैं रचनाकार तो आम जनमानस तक रचना पहुंचाने हेतु माध्यम बनता है और यश प्राप्त करता है। इसीलिए गोस्वामी जी किसी नश्वर देहधारी की वंदना नहीं करते अपितु सनातन आदर्श निराकार निर्विकार सगुण राम की वंदना करते हैं जिनकी भक्ति के सरोवर में डूबकर माता सरस्वती भी स्वयं को धन्य महसूस करती हैं। अतः यहां भी किसी का नाम नहीं लूंगा किंतु रचनाओं एवं लेखों का उद्देश्य समाज हित में होता है अतः कुछ अनुभवजन्य बातें अवश्य प्रस्तुत करूंगा। बीते कुछ वर्षों में हमने विभिन्न धर्म गुरुओं को उनके कुकृत्य हेतु कठोर दंड पाते हुए देखा है। यदि उद्देश्य अपवित्र है तो एक ना एक दिन छद्मावरण हट ही जाता है तथा घिनौने कार्य का दंड भी मिलता है।

लगभग 5 वर्ष पुरानी बात है मेरे एक मित्र को ऐसे ही एक बाबा के कार्यक्रम में मंच संचालन करने का उत्तरदायित्व मिला था उनके साथ एक प्रसिद्ध रेडियो उद्घोषिका भी थीं। मैंने अपने मित्र से पूछा कि ऐसे कार्यक्रम में संचालन क्यों करना चाहते हो तब उसने उत्तर दिया कि केवल थोड़ी देर की स्क्रिप्ट पढ़नी है उसके बदले में मुझे एक अच्छी धनराशि मिलेगी। कार्यक्रम देखने मैं भी पहुंचा था। ऑडिटोरियम बहुत सुंदरता से सजाया गया था तथा कुछ धार्मिक चैनल अपने अपने कैमरों द्वारा पूरा कार्यक्रम रिकॉर्ड कर रहे थे। वहां अनेक ऐसी महिलाएं दिखाई देती थीं जो अच्छे परिवारों से थी तथा अपने कपड़े बदलने के बाद हॉल में आई तथा बाबा के साथ हुए सत्संग पर अपने निजी अनुभव सुनाए। कार्यक्रम की समाप्ति के बाद जब मेरा मित्र अपना चेक लेने पहुंचा तब मैंने उन महिलाओं को भी चेक लेने की कतार में पाया जिन्होंने अपने अपने अनुभव बताए थे। यह अनुभव उनके लिए कितने निजी थे यह तो  नहीं पता किंतु जो भी उन्होंने बोला वह उन्हें पहले से कागज पर लिखकर दिया हुआ था। वास्तव में यह एक व्यापार का रूप लेता जा रहा है तथा चैनल भी पूर्ण रूप से पाक साफ नहीं है। इस प्रकार के कार्यक्रमों को प्रसारित करने से चैनलों की अच्छी खासी आमदनी हो जाती है। जिसकी पेमेंट पहुंच गई उस धर्मगुरु की वाह-वाह तथा जिसकी पेमेंट रुकी हुई है यही चैनल उस की धज्जियां उड़ा कर रख देते हैं। कुछ वर्ष पहले ऐसी ही घटना हुई थी जब एक धर्मगुरु की अनेक चैनल धज्जियां उड़ा रहे थे वहां एक चैनल उसके कार्यक्रमों को भली प्रकार प्रसारित कर रहा था।  मेरी मुलाकात अनेक ऐसे मुस्लिम भाइयों से भी हुई हैं जो अपने ही धर्म गुरुओं से किसी न किसी प्रकार शोषण के शिकार हुए हैं।

प्रश्न यह उठता है कि प्रामाणिक धर्म ग्रंथ किसी भी प्रकार के कर्मकांड अथवा अंधविश्वास को बढ़ावा नहीं देते फिर इस प्रकार के कुटिल धर्मगुरुओं की खेप कैसे पनप रही है। सभी के जीवन में संघर्ष है कुछ न कुछ समस्या है उस समस्या का हल ढूंढने के लिए भोली भाली माताएं अपने बच्चों को इन धर्मगुरुओं के हवाले करते समय विचार नहीं करतीं तथा अप्रिय घटना अनेक वर्षों तक घटने के बाद एकदम से उत्पीड़न हेतु शोर मचाने लगती है। क्या इस प्रकार की घटनाओं के लिए वह भी इन ढोंगी धर्मगुरुओं जितनी ही जिम्मेदार नहीं है? आग का स्वभाव ही है जलाना किंतु जब तक हम अपने हाथ उसमें नहीं देते तब तक वह नहीं जलाती। यही भोली-भाली जनता के साथ हो रहा है।

कोई भी प्रामाणिक धार्मिक ग्रंथ कभी भी व्यक्ति को ईश्वर से अलग नहीं मानता एवं उसी चेतना को प्राप्त करना ही मानव जीवन का लक्ष्य है। फिर हम उन चीजों की कामना में इतना क्यों उलझे हुए हैं जो चीजें एक सीमित समय के सुख का भ्रम ही दे सकती हैं। हम जब तक अपने प्रामाणिक शास्त्रों से दूर हैं तब तक अंधविश्वास है, कुरीतियां है तथा तब तक ही ढोंगी पाखंडी धर्मगुरुओं का व्यापार है। आज जाति एवं धर्म का धंधा सबसे आसान लगता है क्योंकि जब समाज बंटता है तो उसके एक एक हिस्से का लाभ किसी ना किसी स्वार्थी तत्व को आकर्षित करता है वह राजनेता भी हो सकता है और धर्मगुरु भी। राम के नाम पर ओछी राजनीति करने वालों से बात करें तो पता लगेगा कि उन्हें ना तो रामचरितमानस का कुछ अता पता है ना बाल्मीकि रामायण का किंतु चूंकि इस विषय से समाज को बांटने में सफल हो रहे हैं तथा राजनीति की दुकान चल रही है इसलिए मुद्दे को जीवित रखना जरूरी हो जाता है और हो भी क्यों ना क्योंकि एक सुनी-सुनाई पंक्ति के सहारे एक जातिवादी मुद्दा भी इन अवसरवादियों को आसानी से मिल जाता है और फिर इनके मन में मगरमच्छ के आंसू की तरह दलित प्रेम उमड़ता है। यह कथन याद नहीं रहता कि सेवा का भाव सर्वोत्तम होता है इससे ईश्वर की प्राप्ति आसान है यही भक्ति का मार्ग है। भगवान श्रीराम को निजी स्वार्थ के वशीभूत दलित विरोधी कहने वालों को श्री राम कथा के सच्चे वाचक काक भुशुंडी जी तथा सेवक के रूप में शबरी एवं जटायु नहीं दिखाई देते। उन्हें बाल्मीकि रामायण के उत्तरकांड का धोबी अवश्य दिखाई देता है जिसका अस्तित्व ही प्रश्नचिन्ह के घेरे में है क्योंकि बाल्मीकि रामायण में युद्ध कांड के बाद फलश्रुती लिखी गई है तथा फलश्रुती के पश्चात कोई भी ग्रंथ समाप्त हो जाता है अतः उसके पश्चात किसी अध्याय की संभावना ही नहीं बनती। अतः बाल्मीकि रामायण में उत्तरकांड का अस्तित्व ही संदेहास्पद लगता है तथा कुछ विद्वानों का यह भी मानना है वाल्मीकि रामायण में उत्तरकांड श्री वाल्मीकि द्वारा रचित नहीं है गोस्वामी तुलसी कृत उत्तरकांड एवं वाल्मीकि द्वारा रचित उत्तरकांड में जमीन -आसमान की असमानता भी इस संदेश को पुष्ट करती है।

अतः यदि जीवन को वास्तव में उन्नत बनाना है तो प्रामाणिक ग्रंथों से सच्ची निष्ठा से जुड़ने के अतिरिक्त अन्य कोई उपाय कारगर नहीं है। तथा जो प्रामाणिक ग्रंथ न खोज सकें, न पा सकें न पढ़ सकें, उनके लिए भी एक सुगम मार्ग है। अपने आस पास कुछ ऐसों को खोजिए जो आपसे कम भाग्यशाली है। वे ज़रूर मिलेंगे। उनमें ईश्वर को देखिये, उनके भोजन, वस्त्र, शिक्षा, मानसिक जागरण के लिए अपनी सीमाओं में रहते हुए कुछ योगदान स्वयम करिये। उनकी मुस्कुराहट में परमपिता का आशीर्वाद देखिये-आप को और कहीं नहीं भटकना होगा। यदि ऐसा नहीं होगा तो समाज में पाखंड एवं अंधविश्वास की जड़े गहराती जाएंगी एवं ढोंगी धर्म गुरुओं का व्यापार ऐसे ही चलता रहेगा और भोली-भाली जनता उन के शिकंजे में फंसती रहेगी और हमारा सुंदर समाज बंटता रहेगा।

- दीपक श्रीवास्तव
(आदरणीय श्री बी. एल. गुप्ता सर के मार्गदर्शन से साभार)

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