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Saturday, September 8, 2018

--- कारपोरेट संस्कृति के चोले में बदलता भारतीय परिवेश ---

लगभग 30 वर्ष पहले जब भारत में कारपोरेट जगत बाल्यावस्था से किशोरावस्था में प्रवेश कर रहा था उस समय भारतीय शिक्षा पद्धति पर अंग्रेजी शिक्षा पद्धति हावी होने का प्रयास कर रही थी। यदि बात केवल भाषा तक होती तब ठीक था किंतु यह भारतीय समाज का एक अनिवार्य अंग बनता जा रहा था तथा तथाकथित प्रगतिवादी सोच वाले भारतीयों के जीवन में अपने सांस्कृतिक मूल्य कम होते जा रहे थे तथा अंग्रेजी सिर्फ एक भाषा के रूप में नहीं बल्कि आडंबरयुक्त बनावटी जीवन शैली के रूप में विकसित हो रही थी।

झूठ एवं दिखावे यह मुखौटा भारतीय सिनेमा के बदलते स्वरुप में भी दिखाई देने लगा था। एक पुरानी फिल्म याद आती है जिसमें नायिका एक मोटर मैकेनिक अपनी कार ठीक कराती है तथा हड़बड़ी में पैसे देना भूल जाती है तथा उसका पर्स भी मोटर मैकेनिक की गैराज में छूट जाता है। जब दुकान के मालिक जो मैकेनिक के बड़े भाई थे उन्हें इस बात का पता चला है तो उन्होंने मैकेनिक को आदेश दिया कि अपनी मजदूरी के पैसे इसमें से निकाल लो तथा महिला के दोबारा आने पर पर्स लौटा देना तब मैकेनिक के शब्द कि बिना महिला से पूछे पर्स में से पैसे निकालना नैतिकता के खिलाफ है ।उस समय के उच्च मानवीय आदर्शों को स्थापित करता दिखाई देता है। समाज में आए बदलाव ने यह भी दिखाया कि अनैतिक कार्यों को करने के बावजूद कानून की गिरफ्त से बचने हेतु क्या क्या तरीके हो सकते हैं। एक ऐसी फिल्म भी आई थी जिसमें कुछ मित्र मिलकर देश एवं विदेश में धोखाधड़ी का कारोबार करते हैं तथा मौज मस्ती के नए आयाम स्थापित करते हैं।

दुर्भाग्यवश फिसलते आदर्शों का क्रम भारतीय समाज की जीवन शैली मे अनवरत शामिल होता चला जा रहा है और समाज बदलाव की बयार को आधुनिकता की मुखौटे से छुपाने का प्रयास कर रहा है। इसका सबसे दुखद पहलू यह है कि जहां बड़े बुजुर्गों की छांव में संयुक्त परिवार के रूप में परिवार का प्रत्येक सदस्य आधुनिक जीवन शैली को अपनाने के बावजूद अपने मूल्यों से जुड़ा हुआ था आज वह एकाकी जीवन बिताने को मजबूर है क्योंकि इस जीवन शैली ने धैर्य एवं संयम जैसे मानवीय गुणों पर करारी चोट की है।  हर व्यक्ति सफलता पाने हेतु कठिन परिश्रम की बजाय आसान रास्ता ढूंढने में लगा है तथा करोड़पति कैसे बने जैसी पुस्तकों की समाज में स्वीकार्यता बढ़ी है। मैनेजमेंट की अनेक पुस्तकें बाजार में उपलब्ध है तथा विभिन्न कोर्सों के माध्यम से इसके सूत्रों को आम विद्यार्थियों तक पहुंचाने का प्रयास भी किया जा रहा है। यदि इन सूत्रों को अपनी कार्यशैली में सही तरीके से अपनाया जाए तो निश्चित रूप से कार्य क्षमता एवं व्यक्तिगत जीवन शैली भी उन्नत होती है।

किंतु अधिकांश स्थानों पर प्रबंधन के इन महत्वपूर्ण सूत्रों का उपयोग सत्य को छिपाते हुए बनावटी मुखौटों से ढके हुए असत्य को बढ़ा चढ़ाकर प्रस्तुत करने में उपयोग किया जा रहा है। मैनेजमेंट अपने कर्मियों द्वारा किए गए कार्यों की समीक्षा लेकर ही अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर लेता है तथा टीम के प्रदर्शन से  संतुष्ट हो जाता है। इस प्रकार हर व्यक्ति द्वारा अपने उत्तरदायित्व का निर्वहन भली प्रकार होने के बावजूद कर्मियों में असंतोष की भावना उपजती है तथा  जीवन में कोई विशेष बदलाव ना होने के कारण कर्मी नए अवसरों की तलाश में जुट जाते हैं। नए अवसर अपेक्षा के अनुरूप भी हो सकते हैं तथा विपरीत भी हो सकते हैं। आज के दौर में प्रबंधन पर एक बड़ी जिम्मेदारी है कि वह अपने कर्मियों की योग्यता अनुसार उनकी प्रगति का मार्ग भी सुनिश्चित करें। नई तकनीकों के अध्ययन की पहली जिम्मेदारी प्रबंधन पर है ताकि वहां से बेहतर अवसर निकाले जा सके तथा कुछ चुनिंदा कर्मियों को उपयुक्त दिशा में आगे बढ़ने के अवसर दिए जा सके।  इस प्रकार प्रबंधन एवं कर्मियों के सर्वांगीण विकास का मार्ग प्रशस्त किया जा सकता है। इस स्थान पर भी प्रबंधन के इन आधारभूत सिद्धांतों का अनुपालन नहीं होता वहां अपने आप को सही साबित करने की होड़ लगी होती है तथा हर व्यक्ति असंतोष को हृदय में लिए हुए स्वयं को बंधा हुआ महसूस करता है तथा उपयुक्त अवसर मिलते ही बंधन से मुक्त हो जाता है।

 इसी असंतोष की भावना ने व्यक्तिगत जीवन शैली पर भी बहुत करारा प्रहार किया है था व्यक्ति के व्यवहार में अपने आप को वास्तविकता से अधिक दिखाने का प्रयास तथा येन केन प्रकारेण अधिक से अधिक संचय करने की प्रवृत्ति विकसित हुई है। जगदीश गुप्त जी ने लिखा है - "संसार सारा आदमी की चाल देख हुआ चकित। पर झांक कर देखो दृगों में है सभी प्यासे थकित॥"

 कारपोरेट जगत के अधिकांश कर्मियों की सामान्य बातचीत में 80% सैलरी एवं आर्थिक असंतोष की भावना रहती है तथा बेहतर जीवन शैली का मानसिक दबाव क्षमता से अधिक खर्च करने को मजबूर करता है जिस कारण उपजी असंतोष की भावना उन्हें आर्थिक चर्चाओं के शिकंजे से बाहर नहीं निकलने देती तथा अनर्गल संचय की प्रवृत्ति विकसित होती है। मै मेरे बच्चे मेरा परिवार इसके अतिरिक्त यदि उन्हें कुछ दिखाई देता है तो वह सिगरेट अथवा शराब। सामाजिकता से दूर होने के कारण उन्हें अपने नागरिक अधिकारों पर बहस करना तो ठीक लगता है किंतु उन अधिकारों की प्राप्ति के प्रयास से दूर ही रहते हैं तथा राष्ट्र निर्माण के भागीदार नहीं बन पाते।

यह समाज के लिए आत्मघाती स्थिति है क्योंकि कॉरपोरेट जगत के अधिकांश कर्मी उच्च शिक्षा प्राप्त होते हैं तथा उनके अंदर अच्छी समझ होती है। राष्ट्र निर्माण हेतु वह एक अच्छी भूमिका निभा सकते हैं। इतने योग्य व्यक्तियों का अपने सांस्कृतिक मूल्यों से दूर होना तथा बनावटी जीवन का अभ्यास देश की प्रगति में न सिर्फ बाधक है बल्कि उसे प्रगति पथ पर कई मील पीछे धकेल देता है।

- दीपक श्रीवास्तव

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