श्री दुर्गासप्तशती काव्यरूप
(प्रथम अध्याय)
विनियोग मन्त्र
ॐ प्रथमचरित्रस्य ब्रह्मा ऋषिः, महाकाली देवता, गायत्री छन्दः, नंदा शक्तिः, रक्तदन्तिका बीजम྄ अग्निस्तत्त्वम྄, ऋग्वेदः स्वरूपम྄, श्रीमहाकालीप्रीत्यर्थे प्रथम चरित्र जपे विनियोगः।
ध्यान
श्री हरि थे जब शयनसेज पर,
मधु-कैटभ से त्रासित धरणी।
ब्रह्मदेव ने ध्यान किया था,
तेरा ही माँ, हे शुभ-करणी।।
तूने दस हाथों में माता,
खड्ग,चक्र, मस्तक हैं धारे,
गदा,बाण, अरु शूल, भुशुण्डी,
परिघ, धनुष हैं शंख तिहारे।।
तीन नेत्र वाली ज्योतिर्मय,
अंगों में अनुपम सुकान्ति है,
दिव्य तेरे आभूषण माता,
नीलमणी सी परम-शान्ति है।।
हे दशमुख दस चरणों वाली,
मम वन्दन स्वीकार करो।।
ध्यान धरूँ तेरा ही माता,
सारे जग के त्रास हरो।।
ॐ नमश्चण्डिकायै:
सूर्य पुत्र सावर्णि जगत में, जो अष्टम मनु कहलाये।
भक्ति-भाव से सुनें सभी जन, वे जग में कैसे आये।।
कृपा महामाया की पाकर, मन्वन्तर के नाथ हुए।
जिसे प्राप्त पद-धूलि देवि की, वे भवसागर पार हुए।।
स्वारोचिष मन्वन्तर में, इक राजा परम प्रतापी थे।
चैत्र वंश में प्रकट हुए, था नाम सुरथ, अति न्यायी थे।।
जीवन में था धर्म, प्रजा की सेवा पुत्रों के समान।
कोलाविध्वंसी क्षत्रिय लेकिन, उनके शत्रु हुए बलवान।।
दोनों युद्धभूमि में आये, हुआ महाभीषण संग्राम।
राजा सुरथ परास्त हुए, यद्यपि सेना थी अति-बलवान ।।
कीर्ति गई, अधिकार गया, तब राजा अपने नगर चले।
किन्तु शत्रु पीछा न छोड़े, इधर चले या उधर चले।।
राजा का बल क्षीण हुआ, तब मन्त्री दुष्ट प्रभावी थे।
सेना और खजाने को, हथिया लेने को हावी थे।।
भारी मन से सुरथ एक दिन, जनता से मुंह मोड़ चले।
अपने घोड़े पर सवार हो, वे जंगल की ओर चले।।
वहां विप्रवर मेधा मुनि का आश्रम एक पवित्र मिला।
जहाँ शान्ति अनुपम थी,हर इक हिंसक हिंसामुक्त मिला।।
मुनि के शिष्य जहाँ बहुतेरे, वन को शोभामान करें।
पशु-पक्षी,मृग-सिंह,सभी मिलकर भू का सम्मान करें।।
मुनि ने पावन आश्रम में, नृप का अनुपम सत्कार किया।
राजा ने कुछ कालखण्ड तक, वन में वहीँ विहार किया।।
किन्तु जीव जब तक जग में है, तब तक चिन्तामुक्त नहीं।
मोहपाश में बंधी चेतना, जो भीतर थी सुप्त कहीं।।
ममता जाग उठी थी मन में, प्रबल वेदना जागी थी।
उस यश-वैभव की चिन्ता थी, जो जीवन से भागी थी।।
कैसी होगी प्रजा हमारी, क्या सुख भी वैसा होगा?
पुरखों ने जिनकी सेवा की, वह जीवन कैसा होगा??
दुष्ट भृत्यगण अब भी क्या, उनकी रक्षा करते होंगे?
कैसा होगा राजधर्म, क्या उचित न्याय होते होंगे??
शूरवीर गजराज हमारे, जाने अब कैसे होंगे।
जाने कैसे कष्ट निरन्तर, पल-पल भोग रहे होंगे।।
जो जन मेरे कृपापात्र थे, पीछे-पीछे चलते थे।
धन-भोजन के लिए सदा जो, मुझको देखा करते थे।।
प्रजालाभ के लिए कष्ट से संचित धन का क्या होगा?
राजकोष के खाली होने से जनता का क्या होगा??
राजा सुरथ विचारमग्न थे, मस्तक पर चिन्ता रेखा।
तभी विप्रवर के आश्रम में, व्यक्ति एक आता देखा।।
व्यक्ति शोक से ग्रस्त और अनमना दिखाई देता था।
उसके मौन प्रभामण्डल में, कष्ट सुनाई देता था।।
प्रेम उमड़ आया राजा में, परिचय की इच्छा जागी।
उसकी पीड़ा, दर्द जानने की कुछ अभिलाषा जागी।।
राजा ने अति प्रेम-भाव से कहा, सखे! तुम कौन हो?
किस कुल से हो, कैसे आये, क्यों इतने तुम मौन हो??
राजा को अति श्रद्धा से पहले उसने सम्मान दिया।
शीश झुकाकर, हाथ जोड़कर, उसने उन्हें प्रणाम किया।।
फिर बोला, हे राजश्रेष्ठ, मैं धनिक वर्ग से आता हूँ।
वैश्य जाति में जन्म लिया, तन से समाधि कहलाता हूँ।।
किसी समय मेरे जीवन में, सुख की कलियाँ खिलती थीं।
स्त्री-पुत्र सभी थे घर में, सारी खुशियां पलती थीं।।
पुत्रों के उज्जवल भविष्य के लिए किया था धन-संचित।
पर कुटुम्ब से निर्वासित हूँ, होकर अब सबसे वंचित।।
जो मेरा विश्वासपात्र था, उसने ही खंजर भोंका।
मेरे स्वजनों ने ही मुझको, पीड़ा और दिया धोखा।।
भारी मन, दुःख लिए ह्रदय में, मैं इस ओर चला आया।
पर कुटुम्ब का मोह अभी तक, मन से छोड़ नहीं पाया।।
हूँ अनभिज्ञ, दशा स्वजनों की, मेरे बिन कैसी होगी?
होंगे सब आनन्दमग्न या विपदा आन पड़ी होगी।।
क्या उनको जीवन में अब तक सदाचार भाते होंगे।
अथवा लोभी बन जीवन में दुराचार लाते होंगे।।
राजा ने पूछा समाधि से, स्नेह भरा क्यों बन्धन है?
क्यों उनकी चिन्ता है, जिनके कारण ही यह क्रन्दन है।।
क्षण-भर को वह मौन रहा, फिर बोला, राजन! ठीक कहा।
माना मैं निर्वासित हूँ, कुछ भी अब मेरा नहीं रहा।।
किन्तु करूँ क्या, पागल मन निष्ठुरता धारण नहीं करे।
जिसने पति का प्रेम भुलाया, उससे होता नहीं परे।।
धन लालच में जो सुत अपने पिता प्रेम को भूल चुके।
स्नेह भरा मन ऐसे निष्ठुर पुत्रों को न भूल सके।।
चित्त मोह से भरा हुआ, मन भारी होता जाता है।
जिनमे प्रेम नहीं उनके ही लिए सदा अकुलाता है।।
ये कैसी दुविधा जीवन की, इसका ज्ञान नहीं आता।
पीड़ा में हूँ विवश, किन्तु मैं उत्तर जान नहीं पाता।।
वैश्य और नृप दोनों की ही पीड़ा एक सरीखी थी।
दोनों प्रश्न लिए थे, मुनि से हल की आशा दीखी थी।।
दोनों मिलकर साथ चले जिस ओर महामुनि बैठे थे।
मुख पर अनुपम तेज व्याप्त था, ध्यान लगाए बैठे थे।।
दोनों बैठे रहे वहीँ, फिर मुनिवर ने आँखें खोलीं।
राजा ने अति विनय-भाव से प्रश्नों की खोली झोली।।
राजा बोले, हे मुनिवर! मेरे मन में कुछ संशय है।
चित्त मेरे आधीन नहीं है, अनजाना सा कुछ भय है।।
इसीलिए यह बात मेरे मन को अति पीड़ा देती है।
भले विमुख हूँ किन्तु प्रजा की पीर सुनाई देती है।।
हुआ पराजित, राज्य मेरा, मेरे हाथों से चला गया।
किन्तु विप्रवर अपनी ममता से ही हूँ मैं छला गया।।
यद्यपि मेरा राज्य नहीं अब, मुझको इसका भान है।
किन्तु किसी अज्ञानी जैसा दुःख में डूबा प्राण हैं।।
वैश्य मेरे जो साथ विराजित, वह भी तो अपमानित है।
स्त्री, पुत्रों और सेवकों द्वारा ही निष्कासित है।।
स्वजनों ने है त्याग दिया, लेकिन मन में है स्नेह प्रचुर।
दोनों दुःख में डूबे हैं, लेकिन मन में ममता भरपूर।।
यद्यपि जिनमें दोष हमें प्रत्यक्ष दिखाई देता है।
क्यों आकर्षण इतना उनकी ओर दिखाई देता है।।
हम दोनों ही समझदार हैं, फिर यह मोह भला क्यों है?
क्यों विवेक से हीन बुद्धि है, मन यह मूढ़ भला क्यों है??
ऋषि बोले, हे महाभाग! सारे जीवों को ज्ञान है ।
सभी पृथक हैं किन्तु सभी जीवों को अपना भान है।।
कुछ प्राणी देखते दिवस में, कई यामिनी द्रष्टा हैं।
कुछ ऐसे भी प्राणी जग में, जो दोनों में द्रष्टा हैं।।
यद्यपि मानव समझदार है, पशु-पक्षी भी ऐसे हैं।
जैसी रचना है खग-मृग की, ठीक मनुज भी वैसे हैं।।
जैसी बुद्धि मनुष्यों में है, जीवों की भी वैसी है।
भूख-प्यास व अन्य क्रियाएं सबमें एक सरीखी हैं।।
जैसे पक्षी स्वयं भूख से पीड़ित चाहे कितने हों।
सर्वप्रथम वे दाने देते, बच्चे चाहे जितने हों।।
जितनी भी हो समझ मनुज में, किन्तु लोभ की आशा है।
उपकारों के बदले में ही, पुत्रों की अभिलाषा है।।
यद्यपि सभी समझते इसको, फिर भी मोह प्रभावी है।
महाभगवती के प्रभाव से, सब पर माया हावी है।।
जन्म-मृत्यु की अविरल चक्की, जिनके बल से चलती है।
उन्ही महामाया की माया, सारे जग को छलती है।।
सब पर मोह प्रभावी, कोई भी इससे है पृथक नहीं।
यही योगनिद्रारूपा हैं, जगदीश्वर की अंश यही।।
सारा जग है मोहित इनसे, कोई भी है बचा नहीं।
विधि ने ऐसा मोहमुक्त, ज्ञानी भी अब तक रचा नहीं।।
वही महामाया देवी जो, क्षण में सृष्टि रचती हैं।
वही मुक्त जीवों को बन्धन से क्षण-भर में करती हैं।।
वे ही बन्धन, परा वही हैं, वे ही विद्या रूप हैं।
वे ईश्वर की अधीश्वरी हैं, चिर-सनातनी रूप हैं।।
राजा ने पूछा मुनिवर से, ये शुभ-देवी कौन हैं?
जिन्हें महामाया कहते हैं, मातृस्वरूपा कौन हैं??
कैसे आविर्भाव हुआ, जग में उनका क्या रूप है?
जीव-जगत में क्या प्रभाव है, कैसा पुण्य स्वरुप है??
तुम स्वाहा, माँ तुम्ही स्वधा हो,
वषट्कार हो तुम्हीं क्षुधा हो।
तुम्ही तृप्ति हो, तुम ही स्वर हो,
जीवनदात्री तुम्हीं सुधा हो।।
प्रणवाक्षर में तुम अकार हो,
तुम्ही मात्रा, तुम उकार हो।
बिन्दु तुम्ही, अव्यक्त रूप हो,
तीन रूप में तुम मकार हो।।
तुम संध्या, सावित्री, जननी,
तुम्ही सृष्टि की धारण करनी।
तुम जग-जननी, पालन करनी,
कल्प-अन्त में जीवन हरनी।।
सृष्टि जन्म की बारी आई,
तब तुम सृष्टिरूप कहलाई।
जग के पालन-भरण हेतु माँ,
स्थितिरूपा शक्ति कहाई।
कल्पकाल में अन्त समय में,
तुम संहाररूप बन आई।।
महासुरी हो, महास्मृति हो,
महामोहरूपा हो, गति हो।
तुमसे ही गुण होते जग में,
तुम ही सबकी सहज प्रकृति हो।।
तुम्ही भयंकर कालरात्रि हो,
महादेवि तुम महारात्रि हो।
महान-मेधा, महान-विद्या,
महान-माया, मोहरात्रि हो।।
तुम श्री ह्रीं हो, तुम्ही ईश्वरी,
तुम्हीं बुद्धि, हे जगद-ईश्वरी।
खड्ग-शूल को धारण करती,
अचिन्त्यरूपे, परम-ईश्वरी।।
लज्जा,पुष्टि, तुष्टि तुम्हीं हो,
तुम्हीं शान्ति हो, क्षमा तुम्ही हो।
गदा-चक्र को धरने वाली,
घोर-रूप हो, सौम्य तुम्हीं हो।।
धनुष-शंख को धारण करती,
जनती, भरती, जीवन हरती।
बाण, भुशुण्डी,परिध लिए माँ,
तुम जड़ में चेतनता भरती।।
जग में जो सुन्दर कहलाते,
तुमसे ही सुन्दरता पाते।
तुम सबमे हो, किन्तु परे हो,
तुममें ही माँ सभी समाते।।
शक्ति तुम्हीं हो, भक्ति तुम्हीं हो,
भाव तुम्ही, सद्भाव तुम्ही हो।
तेरा वन्दन-पूजन क्या हो?
जन्म तुम्हीं हो मुक्ति तुम्ही हो।।
जो इस जग की सृष्टी करते।
पालन करते, जीवन हरते।
तेरी ही माया से श्रीहरि,
निद्रा की तन्द्रा में रहते।।
यहाँ कौन समरथ है माता,
जो तेरी स्तुति कर पाता।
तुम ही हरि-हर और जगत के,
देह और मन की हो दाता।।
जग में तुम सी शक्ति नहीं है,
तुमसे बढ़कर भक्ति नहीं है।
तुम प्रभाव हो तुम्ही प्रशंसा,
तुमसे बढ़कर मुक्ति नहीं है।।
वन्दन को स्वीकार करो माँ,
मधु-कैटभ से त्रास हरो माँ।
इन्हे मोह के भ्रम में कर दो,
जगती के संत्रास हरो माँ।।
सृष्टि पर उपकार करो माँ,
जगदीश्वर की नींद हरो माँ।
वे मधु-कैटभ का वध कर दें,
उनको ऐसी बुद्धि दो माँ।।
इस प्रकार योगनिद्रा की, ब्रह्माजी ने स्तुति की।
अधिष्ठात्रि तमगुण देवी ने, जगदीश्वर की जाग्रति की।।
ब्रह्माजी के सम्मुख निकलीं, प्रभु के मुख, वक्षस्थल से।
जगदीश्वर की बांह, नासिका, नेत्र, और हृदयस्थल से।।
जग से स्वामी नाथ जनार्दन, शय्या से फिर जाग उठे।
मुक्त हुए निद्रा से भगवन, ज्यों सागर से आग उठे।।
फिर दोनों असुरों को देखा, जो बलवान महाभट थे।
ब्रह्मादेव का भक्षण करने, को आतुर मधु-कैटभ थे।।
श्रीहरि ने दोनों असुरों से, केवल बाहूयुद्ध किया।
पांच हजार बरस तक दोनों को यूँ ही उन्मत्त किया।।
मधु-कैटभ हरि से बोले, हे महावीर हम सन्न हैं।
कोई भी वरदान मांग लो, तुमसे आज प्रसन्न हैं।।
हरि बोले, हे महादैत्य! मुझको केवल यह वर दे दो।
मेरे हाथों मृत्यु तुम्हारी, हो बस यही वचन दे दो।।
और नहीं कोई इच्छा है, जन्म जीव जब पाता है।
होती उसकी मृत्यु सुनिश्चित, यही सत्य रह जाता है।।
माया के धोखे में आकर, असुरों ने जल ही देखा।
फिर बोले जलमुक्त जगह जो, वहीं हमारा हो लेखा।।
दोनों ने स्वीकार किया, अब भाग्य रेख कुछ वक्र चले।
दोनों मस्तक हरि जंघा पर, हरि का अब तो चक्र चले।।
जगदीश्वर ने दोनों असुरों का ऐसे संहार किया।
मायादेवी के प्रभाव से, भू का हल्का भार किया।।
श्री मार्कण्डेय पुराण अन्तर्गत सावर्णिक मन्वन्तर में वर्णित देवी माहात्म्य का प्रथम अध्याय काव्य रूपान्तर समाप्त।
- दीपक श्रीवास्तव