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Monday, October 6, 2025

जीवन और मृत्यु : एक सहज प्रक्रिया का दर्शन

जीवन और मृत्यु — यह विषय मानव सभ्यता के आरंभ से ही रहस्यमय रहा है। प्राचीन ऋषियों से लेकर आधुनिक वैज्ञानिकों तक, हर युग में मनुष्य ने मृत्यु को समझने का प्रयास किया है। फिर भी यह आज तक उतनी ही अगाध पहेली बनी हुई है जितनी सदियों पहले थी।

हर व्यक्ति मृत्यु को जानना चाहता है, परंतु शरीर और मस्तिष्क की सीमाएँ उसे वहाँ तक नहीं पहुँचने देतीं। मनुष्य यह मानकर बैठ जाता है कि “जीवन है तो मृत्यु निश्चित है,” और यही उसकी अंतिम समझ बन जाती है।

चिकित्सा विज्ञान ने भी सदियों से मृत्यु पर विजय पाने का प्रयास किया है, परंतु मेरा विचार है कि विज्ञान ने अब तक मृत्यु को वास्तव में समझा ही नहीं। विज्ञान ने मृत्यु को सदैव किसी रोग, बुढ़ापे या किसी शारीरिक कारण से जोड़ा है, परंतु उसने कभी मृत्यु को एक स्वतंत्र सत्ता (independent entity) के रूप में नहीं देखा। यही कारण है कि मनुष्य आज भी मृत्यु के मूल तत्वों से अनभिज्ञ है।

यदि हम प्रकृति की ओर देखें तो पाते हैं कि हर उत्पत्ति का एक अंत निश्चित है। सजीव ही नहीं, निर्जीव वस्तुएँ भी इस नियम के अधीन हैं। कोई पर्वत हो, पत्थर, धातु या घर का कोई वस्तु — सबकी एक आयु होती है। जब उनकी उपयोगिता की अवधि समाप्त होती है, वे नष्ट हो जाते हैं। इसी प्रकार जीव-जंतु, पेड़-पौधे और मनुष्य — सभी जन्म लेते हैं, एक निश्चित काल तक जीवन जीते हैं, और फिर एक दिन उसी प्राकृतिक चक्र में विलीन हो जाते हैं।

चिकित्सा विज्ञान मृत्यु को किसी रोग का परिणाम मानता है, परंतु वस्तुतः मृत्यु जीवन की एक सहज और अनिवार्य प्रक्रिया है।

मेरा व्यक्तिगत अनुभव रहा है कि अनेक बार गंभीर रोगियों से वार्तालाप के दौरान यह देखा गया — जब उनका मस्तिष्क कार्य करना बंद करने लगता है, वे कुछ बड़बड़ाते रहते हैं। परंतु स्वस्थ होने के बाद जब उनसे पूछा जाता है, तो उन्हें स्मरण तक नहीं रहता कि उन्होंने क्या कहा था। इससे यह स्पष्ट होता है कि पीड़ा, रोग, मानसिक तनाव — सबका नियंत्रण मस्तिष्क से होता है, और जब मस्तिष्क निष्क्रिय हो जाता है, तब न पीड़ा का अनुभव रहता है, न चेतना का। हृदय तो केवल शरीर में रक्त प्रवाह का कार्य करता है, परंतु हमारी सभी भावनाएँ, लगाव, भय, सुख-दुःख — ये सब मस्तिष्क की रासायनिक प्रक्रियाओं के परिणाम हैं।

मृत्यु का भय भी मस्तिष्क की ही एक प्रतिक्रिया है। परंतु मृत्यु का अनुभव आज तक कोई व्यक्त नहीं कर सका — जैसे कोई अपने जन्म का अनुभव नहीं बता सकता, वैसे ही मृत्यु की अनुभूति भी अवर्णनीय है, क्योंकि उस क्षण मस्तिष्क स्वयं कार्य करना बंद कर देता है। मेरे विचार में, मृत्यु का भय समाप्त होना चाहिए।

मृत्यु जीवन का स्वाभाविक समापन है। जैसे शल्यचिकित्सा (ऑपरेशन) के समय रोगी को बेहोश कर दिया जाता है ताकि मस्तिष्क तक दर्द के संकेत न पहुँचें, वैसे ही मृत्यु के समय मस्तिष्क स्वयं सभी संकेतों को रोक देता है, इसलिए व्यक्ति उस क्षण की पीड़ा को अनुभव ही नहीं करता। इसी कारण किसी ने आज तक मृत्यु का प्रत्यक्ष अनुभव साझा नहीं किया।

मृत्यु को एक रोग नहीं, बल्कि जीवन की सहज प्रणाली के रूप में स्वीकार करना चाहिए। जीवन की प्रत्येक सत्ता — चाहे मनुष्य हो, पशु, पक्षी या वनस्पति — सबकी एक निश्चित सीमा और भूमिका होती है।

जब तक सांसों की डोर बंधी है, तब तक कर्म और अनुभव चलते रहते हैं। जब वह डोर पूर्ण हो जाती है, जीवन शांत हो जाता है शास्त्रों में कहा गया है कि प्रत्येक जीव अपनी आयु, अपने कर्मों और अपने उद्देश्य के अनुसार ही आता है।

जब उसका कार्य पूर्ण हो जाता है, तो वह इस संसार से चला जाता है, भले ही उसका बहाना रोग हो, दुर्घटना हो या बुढ़ापा। इसलिए मृत्यु से डरने के बजाय उसे सहजता से स्वीकार करना ही उचित है।

आधुनिक चिकित्सा विज्ञान का प्रयत्न रहा है कि मृत्यु को टाला जाए, वेंटिलेटर, कृत्रिम ऑक्सीजन और अन्य उपकरणों से जीवन को खींचने की कोशिश की जाती है। परंतु मेरी दृष्टि में यह केवल शारीरिक और मानसिक पीड़ा को बढ़ाता है।

जब किसी का अंत निकट हो, तब उसे स्वतंत्रता से, शांति के साथ उस यात्रा को पूर्ण करने देना चाहिए। प्राणी स्वभावतः स्वतंत्र है — उसे रोकना नहीं, बल्कि उसकी अंतिम यात्रा को आनंद और सम्मान के साथ पूर्ण होने देना है।

- दीपक श्रीवास्तव



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