अनगिनत जीवन अचेतन भोग लिप्सा में समाये,
सत्य से अनभिज्ञ रह निज संस्कृति न जान पाये।
भोग संस्कृति त्याग हमको स्वत्व पीड़ा है मिटाना;
लक्ष्य दुर्गम, घन निशा में मार्ग हमको है बनाना!!
द्वेषमय अविरल पवन में मार्ग से जो भटक आए,
पथ प्रकाश कुसुम सुधा हरि अंश को न देख पाये।
मेट मृगतृष्णा हमें मनुजत्व उनकों है बताना;
लक्ष्य दुर्गम, घन निशा में मार्ग हमको है बनाना!!
कंटकों की मार में भी जो विजय के गीत गाये,
मद, गरल, दनुजत्व कंचन लोभ जिस पर चढ़ न पाये।
राष्ट्र दीपक बन उसे ही घोर तम में पथ दिखाना;
लक्ष्य दुर्गम, घन निशा में मार्ग हमको है बनाना!!
--दीपक श्रीवास्तव
3 comments:
EXCELLENT......
this is really a mind blowing article. ultimate
really, great, no alochana, actally meri hindi itni majbut nahi hai,but lagta hai ki is poem me nihit bhavarth kafi achhchhe hai,nice keep it on
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