आज मेरे इन दृगों को,
एक बार निहार साथी |
अश्रुओं में है झलकती,
प्रीत की मनुहार साथी ||
जो नहीं तुम निकट मेरे,
वेदना से तप्त जीवन |
प्रीत-अमृत से संवारो,
आज यह अभिशप्त जीवन ||
हैं ह्रदय के तार कम्पित,
प्रीत के मृदु राग छेड़ो |
तन भिगोयें, मन भिगोयें,
राग वो मल्हार छेड़ो ||
प्रीत की भाषा मनोहर,
तुम नए कुछ छंद दे दो |
सिमट जाऊं मै तुम्ही में,
आज ऐसे बंध दे दो ||
-- दीपक श्रीवास्तव